Thursday, December 15, 2016

A Ghazal in two parts

This magnificent Ghazal apparently is in two parts.  Both parts have been sung by Jagjit Singh, on separate occasions.

Part 1, written by Aziz Qaisi

आप को देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया।

उन के आँखों में कैसे छलकने लगा
मेरे होंठों पे जो माजरा रह गया।

ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर
आखरी हमसफ़र रास्ता रह गया।

सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये (कू-ए-तमन्ना = Way of Desire)
जानेमन जो यहां रह गया रह गया।

आप को देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया।



Part 2, written by Wasim Barelvi

आप को देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया।

आते-आते मेरा नाम-सा रह गया
उसके होंठों पे कुछ कांपता रह गया।

वो मेरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया।

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये
और मैं था कि सच बोलता रह गया।

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया।

आप को देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया।


2 comments:

Anonymous said...

What a voice! Gives me the haunts every time I listen to him. Timeless! Thanks for sharing. Glad to see you are in more of the romantic moods for the holidays:-)

Anonymous said...

Jagjit Singh is melancholic...just what the heart loves. Ghulam Ali's ...nee maen laayian ranjhe naal also has an undertone of melancholia.