Friday, September 27, 2019

A Ghazal by Saleem Kausar

मैं ख़याल हूँ किसी और का (सलीम क़ौसर)

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मैं ख़याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मेरा अक्स है, पस-ए-आइना कोई और है
(पस-ए-आइना = behind the mirror)

मैं किसी के दस्त-ऐ-तलब में हूँ, तो किसी के हर्फ़-ऐ-दुआ में हूँ
(दस्त-ए-तलब = outstretched hands, हर्फ़-ऐ-दुआ = words of prayer)
मैं नसीब हूँ किसी और का, मुझे माँगता कोई और है

अजब ऐतबार-ओ-बेइतबारी के दरमियान है ज़िन्दगी
में क़रीब हूँ किसी और के, मुझे जानता कोई और है

मेरी रौशनी तेरे ख़द्द-ओ-खाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर
(रौशनी = sight, ख़द्द-ओ-खाल = features, मुख़्तलिफ़  = unfamiliar)
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ, तू वही है या कोई और है

तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता नहीं
तेरी दास्तां कोई और थी मेरा वाक़िया कोई और है

वही मुन्सिफों की रवायतें वही फ़ैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म कोई और था पर मेरी सज़ा कोई और है

कभी लौट आएं, तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से
जिन्हें रास्ते में खबर हुई कि ये रास्ता कोई और है

जो मेरी रियाज़त-ए-नीम-शब् को 'सलीम' सुबह न मिल सकी
(रियाज़त-ए-नीम-शब् = midnight prayer)
तो फ़िर इस के मानी तो ये हुए कि यहां ख़ुदा कोई और है

(with help from Rekhta, a recitation in the poet's own voice is on this page)

1 comment:

Anonymous said...

Nice.